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मित्रता
मित्रता भी बड़ी साधना है

वास्तव में मित्र भाव मनुष्य का मूल स्वभाव है। परंतु समय के खेल निराले हैं। अचरज है कि कलयुग में नेचरल रूप से मित्रवत भाव भी की स्थिति का होना एक साधना का विषय बन गया है। चारों युगों में जो भी परिवर्तन हुए हैं वे मानवीय और प्राकृतिक दोनों प्रकार के हुए हैं। मानवीय परिवर्तनों में सबसे बड़ा परिवर्तन मनुष्य की भावनाओं का हुआ है। भावनाओं के परिवर्तन के बाद ही विचार के तल पर भी परिवर्तन होते हैं। भावनाएं सीधे सीधे प्रभाव डालती हैं। मित्रवत भावनाओं के संबंध का विषय ऐसा है जिसमें लौकिक और अलौकिक संबंधों का होना अनिवार्य नहीं होता है। यह मित्रवत सम्बंध अलग तल (लेवल) पर काम करता है। असल में यह अनजाने और निष्प्रयोजन रूप से काम करता है।

जैसे जैसे मनुष्य के जेहन में उपयोगितावाद की भावना की अतिश्य होती गई है, ठीक वैसे वैसे ही मनुष्य के अंदर लोभ वृत्ति प्रबल होती गई है। लोभ की प्रबल अतिशय वृति के कारण मनुष्य के मैत्री भाव का स्थान उपयोगिता ने ले लिया। उपयोगिता और लोभ दोनों की वृत्ति बढ़ने से शोषण की वृत्ति प्रबल हो गई। इस तरह के आंतरिक मानसिक परिवर्तन की प्रक्रिया में देखते ही देखते ना जाने मनुष्यों के मैत्री भाव कब वैमनस्य (शत्रु) भाव में बदल गए, कुछ भी कहना मुश्किल है। हम सभी आत्माएं इस परिवर्तन के जन्म जन्म साक्षी रहे हैं। हमें हमारी अतीत की मानसिक परिवर्तन की प्रक्रिया याद नहीं है, वह बात दूसरी है।

खैर। यह भी सब समय की बलवत्ता होती है। अब पुनः वही समय आ गया है। मनुष्यों के आंतरिक परिवर्तन में समय निमित्त बनेगा। मनुष्य आत्माओं की भावनाएं फिर से बदल शुद्ध पवित्र रूप लेंगी। कुछ लोग स्वयं ही अपने अंतःकरण के भाव को परिवर्तन करने की साधना करके अपनी भावनाओं की पवित्र करेंगे। स्थिति ऐसी बनेगी कि सच्चे मायने में सबमें मैत्री भाव भावनाएं प्रकट हो सकेंगी। मन और प्रकृति की शुद्धतम अवस्था में सुख शान्ति आदि अध्यात्मिक गुणों के अनुभव निहित होते हैं। मन और प्रकृति की अशुद्धतम अवस्था में वह बात नहीं होती। योग साधना के द्वारा ही अपनी संवेदनाओं को जगाया जा सकता है। भावनाओं के शुद्धिकरण के वैज्ञानिक प्रयोग किए जा सकते हैं। धन्यवाद। Thank you. Share and inspire.