वो कोई और थी...
ढल रही थी मैं इक अदृष्य ढाँचे में
धीरे धीरे अपनी पहचान खो रही थी
ग़लती भी जैसे भीषण गुनाह था यहाँ
सहमी सहमी सी मैं सिमट रही थी
वो आसमां जैसे अजनबी सा हो रहा था
मेरे पंखों की ताक़त कमज़ोर हो रही थी
मेरे ख़्वाबों की...
धीरे धीरे अपनी पहचान खो रही थी
ग़लती भी जैसे भीषण गुनाह था यहाँ
सहमी सहमी सी मैं सिमट रही थी
वो आसमां जैसे अजनबी सा हो रहा था
मेरे पंखों की ताक़त कमज़ोर हो रही थी
मेरे ख़्वाबों की...