...

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वो कोई और थी...
ढल रही थी मैं इक अदृष्य ढाँचे में
धीरे धीरे अपनी पहचान खो रही थी

ग़लती भी जैसे भीषण गुनाह था यहाँ
सहमी सहमी सी मैं सिमट रही थी

वो आसमां जैसे अजनबी सा हो रहा था
मेरे पंखों की ताक़त कमज़ोर हो रही थी

मेरे ख़्वाबों की क़िस्मत में मंज़िल न थी
बेरंग सी ज़िन्दगी हकीक़त लिख रही थी

मेरी ख़्वाहिशें अब सिसकने लगी थी
फ़र्ज की जंजीरें और उलझ रही थी

वक़्त को शायद मंज़ूर कुछ और था
मैं फ़िर ख़्वाबों के क़रीब हो रही थी

दहलीज़ के पार उम्मीद की किरण
मेरे हौसलों को रौशन कर रही थी

आज मेरी क़लम ख़ुद की पहचान लिख रही है
हाँ, वो कोई और थी जो दहलीज़ में सिमट रही थी