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सागर
कर रहा भारत के चरणों का जो वंदन विशेष
वही जलजीवन पालनकर्ता अद्भुत अनुपम रत्नेश
वह जो राम का सेवक है, असंख्य जीव-स्वामी भी
जिसमे घनघोर गर्जन है, वरन् शीतल हितकामी भी
वैसे तो यह सारे संसार का अवशेष क्रोध पिए
फिर भी 'प्रसाद' की 'कामायनी' का सौंदर्य बोध लिए
ऐसे महान जल-अचंभे से फिर क्यों न हो विस्मय
उतार देता हठीला नशा चाहे जो भी रहा हो मय ।

खेल रही हैं मछलियाँ जिसमे खेल बचपन के
और घटित हो रहे दृश्य रक्त तड़पन के
पवन से मित्रता कर जो जहाज़ चलाता है
इन दिलेरों का रास्ता खुदा खुद बनाता है
ज्वालामुखी उदर में, अपितु शील-स्वभाव धारी
है सामर्थ्य जिसमे बनने का अत्यंत प्रलयंकारी
हो इकट्ठी मानवता अब बचाओ इस धरती को
पहचानो और प्रणाम करो गंगाजल की हस्ती को ।

जिससे मिलने गंगा-जमुना हज़ारों कोस मचलती हैं
जिससे बनकर श्याम घटाएँ प्यास तृप्त बरसती हैं
चिर लीन सा वह प्रेमी बरसों प्रतीक्षा में बिताता है
नदियों से मिलने पर लहर की चूड़ियाँ पहनाता है
पानी की कलाई का संगम जब साजन हाथ से होता है
मानो तब स्त्री यौवन का अंतर्मन खुशी से रोता है
यह परम गाथा सुनाने वाली संतों की अमर वाणी है
निश्छल, निर्मल, निराकार, निर्दोष पावन प्रेम कहानी है ।

यूँ तो अधजल गगरी मदमस्त होकर छलकती है
परन्तु जलधि की लहरें साहिल पे आ सिमटती हैं
महान बनकर विनम्र रहना बड़े लोगों का काम है
राम, कृष्ण, ईसा, पैगम्बर का यही तो पयाम है
उगल चुका हो लक्ष्मी व अमृत जो समुद्र मंथन में
किन्तु फिर भी बंधा हुआ है स्वरचित बंधन में
गोद में इसकी खेलने वाले तूफानों की कमी नहीं है
परन्तु वाह रे बिरले सागर! जो मचला फिर भी नहीं है ।।


© AbhinavUpadhyayPoet