...

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सागर की आत्मकथा
मैं सागर हूँ!
शांत हूँ, ऊपर की सतह पर!
एक जीव-जगत पलता है;
मेरे अंदर।
नदियों का संगम-स्थल हूँ!
गम्भीरता का पर्याय हूँ ,मैं!

क्षितिज तक फैलाव लिए;
अथाह गहराई है मेरी !
सब कुछ अपने अंदर;
समेट लेने का;
सामर्थ्य भी !

सतह पर;
यही है मेरा परिचय!!


मगर, अंदर की उथल-पुथल को;
छिपाए हूँ मैं;
अपने विशाल आकार के नीचे;
गम्भीर स्वभाव के कारण!!

मेरे तल में पड़े गड्ढों को,
चट्टानों को,
मेरे छलनी अन्तस को भी;
छिपाए हूँ मैं!!


पर कैसे रोकूँ?
अंदर चल रही;
गर्म-ठंडी धाराओं को!
आती-जाती लहरों को!
हर रोज के ज्वार-भाटे को!
कभी ना ठहरने वाली;
हलचल को!!

बहुत अशांत हूँ मैं;
तल और सतह के बीच में!

डरता हूँ अपने आप से,
अति ना हो जाये;
मेरी सहनशक्ति की!
और मैं कहीं फट न पडूँ;
सुनामी बनकर!!

टूट ना जाये भ्रम;
मेरे ऊपरी परिचय का,
उस जीव-जगत का,
जो मानता है अपना;
आश्रय-स्थल मुझको!

क्योंकि; यथार्थ से परे,
सभी परिचित हैं;
केवल मेरी ऊपरी परिभाषा से,
और कोई  नहीं जानता मुझे,
सतह से नीचे!!!

नीटू कुमार "नीता"