...

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रुह
ये रूह के अफसाने है
बड़े लम्बे इसके दास्ताने है
यूंही नहीं मिलती ये सब से
इसके भी अपने ही परवाने है।
और मिल जाए जिससे
वो तो इसके अपने अज़ीजो खास है ।
मगर रुठ जाएं जिससे ,उससे न मिलते इसके
फिर कभी अफसाने है।
कमबख्त कभी -कभी बड़ी कठोर है ये
तो कभी बड़ी कोमल ।
सुनती नहीं किसी की
सुनती है तो अपनी ही बस ।

इस पर न हमारा कोई बस है
इसका तो अपना ही मरज है
कभी हंसाती किसी को तो,
कभी कभी रुलाती है ।
ये हर बार सबको अचंभित
कर जाती है।
ये रूह तो बड़ी ही अजीब है
बड़े लम्बे है इसके दास्तानें
इसके तो सबसे अलग अपने ही परवाने है।