...

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ख़्वाब
मैख़ाने जाकर किया जाए अपना वक़्त ख़राब क्यूँ
नशा जब उसकी आँखों से हो जाए, तो शराब क्यूँ...

फाड़ कर फ़ेंक दिए मैंने वो पन्ने फलसफों के सभी
जब पढ़ सकता हूँ उसके लबों को, तो क़िताब क्यूँ...

जो भी दिल में हो तुम्हारे, मुझ से कह दो खुलकर
इतना तकल्लुफ, और आप आप का लिहाज़ क्यूँ...

अब कोई अजनबी तो नहीं हम दोनों एक दूसरे से
नज़र को मिला भी लो, ये बेवजह का हिजाब क्यूँ...

तुम हर्गिज़ पिघल तो न जाओगे हमारे छूने भर से
ज़रा क़रीब आ जाओ, ये लाज शर्म बेहिसाब क्यूँ...

अभी चन्द ही लम्हे तो हुए हैं, तुम्हारे पहलू में मुझे
ठीक से आए भी न हो अभी जाने का शिताब क्यूँ...

इश्क़ की तरफदारी पहले भी कब की है ज़माने ने
मोहब्बत बेबाक करो, सोचते हो रस्मों रिवाज क्यूँ...

एक बार तो रूबरू हो जाओ, मेरे ख्वाबों से इतर
अक्सर देकर जाते हो, हमें इस कदर अज़ाब क्यूँ..
© Naveen Saraswat