...

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अनकही बातें खुद से किए है सारे...
मुझमें सदियां बीती है
कई रातें जगी और दिन सोई है
दिन गुज़रे लम्हें ठहर गए
मुझमें ख्याल सारे रह गए
खलिश है रंजिश है
तेरे न होने के एहसास से
अब जो रूह बेचैन है

दूरी है पर ये कैसी मजबूरी है
तुझसे जो कहना है
वो बात मुझमें खल रही है
पहले एहसास ऐसा नहीं था
तुझको लेकर सोच में भी
लगता कुछ वैसा नहीं था
अब आलम ये वक्त का है
ख्वाहिशें सारी बेजार है
तू जो मुझमें घर कर रहा बेहिसाब है

इस एहसास से मुझको पाक कर दे
खुदा कर कुछ ऐसा
मुझको ये सब से रिहाह कर दे
एक ही तो ज़िंदगी है कितनी बार इसे
जज़्बातों के समंदर में कुर्बान करना
किसी के लिए न खुद को अब बर्बाद करना
तन्हाई सही है मुझमें रही मेरी ही कमी है
कर चाहतें एक तरफा
अब न किसी पे निसार होना
मुझको खुद में खुद की पनाह है पाना

© ehsaas__e__jazbaat