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तुलसी की कथा
एक बार शिव क्रोध से, जन्मा एक सूत जालंधर था,
त्रिलोकपति, वो असुर राज, पर अहंकार भी अंदर था,
मौका उसे त्रिदेव ने बारंबार दिया,
पर घमंड में चूर वो युद्ध को ललकार दिया,
मगर जालंधर प्रेम मामलें में ज्यादा संपूर्ण था,
पतिव्रता पत्नी वृंदा , शुक्राचार्य ज्ञान निपूर्ण था,
मुख पर तेज़, ह्रदय में प्रेम, वैदिक गुणों से सशक्त वो,
कालनेमी पुत्री वृंदा थी, श्री नारायण की भक्त वो,
उसे ज्ञात था कि जन्म ले चुका है पति के अंदर असुर,
अमरत्व की पूजा पति को मृत्यु से रखेगा दूर,
पति प्रेम उसका, दे रहा था एक असुर को अमर दान,
मगर सृष्टि की रक्षा हेतु, नारायण को करना पड़ा ये काम,
धर वृंदा पति का रूप नारायण पूजा रोकने चल दिए,
खुद बैठ गए आशन पर, वृंदा संग सब वचन ले लिए,
जब निकट आई वृंदा उनके, तब देवत्व का एहसास हुआ,
वो जान गई नारायण को, हे नारायण ये क्या पाप हुआ,
तब क्रोध में वृंदा ने प्रभु को शिला होने का श्राप दिया,
वो सती हुई, हरि मौन हुए, उसके पतिव्रता का नाश हुआ,
वृंदा संग वचनों से, हरि को अपने छल का आभास हुआ,
जहां वृंदा सती हुई वहाँ, एक पौधे ने फिर जन्म लिया,
वो तुलसी हुई, प्रभु शिला हुए, एक नया कथा आरम्भ हुआ,
हे वृंदा तुमनें जो संग वचन लिए मैं तुमको भी अब प्राप्त हुआ,
जो मनुष्य तुलसी का मेरे शालिग्राम रूप से विवाह किया,
उसे प्रत्येक लोक में, यश कीर्ति, और मुझकों भी प्राप्त किया।

© Vishakha Tripathi