...

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रंग...ज़िन्दगी के
रंग कहाँ हैं ख़ाबों के, गए हैं जैसे कोई रंग सुबह की
रात बड़ी ये लंबी है, पर दिखे न कोई रंग सुबह सी

ज़र्रा ज़र्रा हैरां है, क्यों चारों तरफ़ ये पहरा है
बहुत ज़रूरी ये भी हैं, सो ढूंढ रहा कोई रंग ज़रा सी

उल्टे सीधे फिर सीधे उल्टे, ये ख़ुद में उलझा रहता है
तो क्यों न ज़रूरी कोई है, जो छेड़े कोई रंग ज़रा सी

वैसे तो मेरा साया है, धूप खिले तो आया है
रात गवारा होता है, सो ढूंढ रहा कोई धूप ज़रा सी

© Amit✍️...




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