...

16 views

दिन ढल गया
लो फिर इक दिन ढल गया
सूर्य अपने छोर को चल गया
सांझ की लालिमा की गोद में
चंद्र जैसे भानु के विरोध में

चौदहवीं के रूप पर कितना है इठला रहा
रौशनी उसी से ले जबकि है फैला रहा
मैं भी देख उसको थोड़ा सा सुस्ता चला
ले विराम आज का काम से रुकता चला

के सोचा कल पर बाकि कार्य छोड़ दूं
आज ध्यान सारा चांदनी पर मोड़ दूं
मेज़ पर ही मेरा हर दिवस है बीतता
नित नवीन युद्ध में वक्त ही है जीतता

आज के लिए पूर्ण मेरा श्रम हुआ
तो क्या हुआ जो आज थोड़ा कम हुआ
थक चला प्रति दिवस की दौड़ में
खुद से खुद की बेहतरी की होड़ में

कुछ न पाया रोज़ खुद को मारकर
कतरा-कतरा रोज़ खुद को हारकर
जिसको चाहा उसको पीछे छोड़ कर
ख़्वाब अपने मन ही मन में तोड़ कर

नाते रिश्ते सारे कब के छोड़े टूटते
ज़िंदगी की दौड़ में मीत पीछे छूटते
गांव छोड़ जब से हूं शहर चला
घूंट घूंट पीते जैसे हूं ज़हर चला

जुनून खत्म हो गया पास अब सबर नहीं
रोज़ हम सफ़र में पर साथ हमसफ़र नहीं
देखते ही देखो रात और काली हो चली
अलविदा अब मेरी कलम भी खाली हो चली

© random_kahaniyaan

#eveningthoughts #solitude #hardwork #goodmorning
#hindipoem #poetry #shayari