...

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सोचा था अपने यार से मिलूंगी.....
छत पर जाते ही
घना अंधेरा बिछा हुआ था,
ग्रीष्म ऋतु के माह में भी
शांति का माहौल छाया हुआ था।

ना कोई चहल पहल ना कोई ध्वनि
दुनिया की सारी आवाज़ें मानो इसी रात में समा गई थी,
सोचा था आज मैं अपने यार से मिलूंगी
पर लगता है वह मुझे देखे बगैर ही जा चुकी थी।

मोड़ लिए थे अपने कदम मैंने दूजी और
आकाश की खामोशी देख मेरी नाराज़गी बढ़ चुकी थी,
तभी हुआ एहसास किसी जानी पहचानी मौजूदगी का....
आखिरकार! चंद्रमा की वह ललित रोशनी मेरी एकाकी मिटाने आ चुकी थी।।


© Kishori.T