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गजरानी
गजरानी

एक वाक़्या सुनाता हूँ…
दक्षिण की ये बात है।
जानवर के विश्वास पर…
इंसानी विश्वासघात है।
भूल-भटक कर जंगल से,
ग्राम-पथ पे हथनी आई।
इन्सानों-से इन्सान दिखे,
आँख में उसके रौनक आई।
वो गजरानी गर्भवती थी,
गर्भ में उसके बच्चा था!
हथनी खुद भी भुखी थी
और पेट में भुखा बच्चा था!
एक इंसान पास गया,
खाने को अनानास दिया।
भुखी हथनी सूंड़ से पकड़ी
और मुख-गुहा में डाल लिया।
वो अनानास ज़हरीला था,
था उसमें बारूद भरा…
मुख में उसके हुआ धमाका!
टूट गया जबड़ा पूरा...
कुछ नहीं सूझा उसको;
ख़ूब थी उसकी झनझनाहट!
पेट में बच्चा तड़पा पहले,
फ़िर बंद हुई उसकी भी आहट!
भला उसको क्या सूझता?
गर्दन उसका सूज रहा था!
आँखें रीस रही थीं उसकी,
धीमे-धीमे दम घूँट रहा था!
दौड़ी भागी पास नदी के,
कोशिश थी कि प्यास बुझे!
गर्दन ही सूज गया था उसका,
पेट का कैसे आग बूझे?
वो पिती रही निरंतर पानी,
कंठ से पर उतरा नहीं!
दम घूँट गया, मर गई हथनी
और जो बच्चा जन्मा नहीं!
ये एक सच्चाई है…
इसको न हल्के में लेना!
“धनक” तो कल को मर जाएगा;
हो सके तो आगे पहुँचा देना!
-Amartya Dhanak Sfulingodgaar
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