"वक़्त"
रज़ा बहुत एहतराम बहुत,
वक्त के मसले आम बहुत।
बेख़ौफ़ सख्त हिज़्र का दामन,
फ़ज़्ल हुए नाक़ाम बहुत।
गुमनामियों से लिपटी रहतीं,
शोहरतें तमाम बहुत।
सिफ़त होकर भी 'तुम' नहीं हो वाणी,
आशुफ़्ता हुई आवाम बहुत।
© प्रज्ञा वाणी
वक्त के मसले आम बहुत।
बेख़ौफ़ सख्त हिज़्र का दामन,
फ़ज़्ल हुए नाक़ाम बहुत।
गुमनामियों से लिपटी रहतीं,
शोहरतें तमाम बहुत।
सिफ़त होकर भी 'तुम' नहीं हो वाणी,
आशुफ़्ता हुई आवाम बहुत।
© प्रज्ञा वाणी