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एक विहंग व्यथा।

एक रात्रि का अवशेष सुनो जब वह मंदमान तुरंग था।
जैसे नील आभा को लज्जीत करता स्वर्ण सा एक रंग था।

दिनचर्या के उपहार सजक कर,एक डालपर आसनस्थ था ऐैसे।
धरा के मिलन को;वर्षा की बूंदे कमलपत्र पर;हो मोती जैसे।

अवगुण सारे त्याग चुका था; घोसले की आढ में।
चंद्रमा की शीतल लहरो में निद्रा के प्रगाढ़ में।

मधुरमय स्वप्न में; संचित विद्या लहराती पंखों में।
दिनचर्या का अथक परिश्रम, धारा बनकर झरती आंखों में।

एक प्रियतमा, एक प्रतीक था निद्रा के बहाल में।
तृप्ति से संतृप्ति मे, अमर मधुर ख्याल में।

शांत देवदारू के उपवन में, झंझावात उद्दंड हुआ।
देवदारू के विनय प्रभाको, कुचल कर, एक अनल प्रचंड हुआ।

जब दावानल की शिखर शीखाने, बसेरों का स्पर्श पान किया।
सारे जीवचर अपने जन से, वन के; धूंकार ने अनजान किया।

तृप्ति का...