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“ये वीरानोंं में मेरे, आता है कौन?"
ऐ-आहट, थोड़ा बता के तो जा,
ये वीरानों में मेरे, आता है कौन ?
खुश्क जख्मों के सिवा, कोई नहीं मेरा,
फिर मेरी मिट्टी पे होठ, लगाता है कौन ?
दिखाती है हवाएं, रोब भी ना जाने क्यूं,
दीए बुझने से भी मेरे, बचाता है कौन ?
माशूकों से छुपकर ही तो, लेटा हुआ हूं कब से,
मोहब्बत की बात छेड़कर, फिर हसाता है ये कौन ?
मेरी रूह का मुझपे, कोई हक नहीं,
इस जिस्म-ए-खाकी पे हक, जताता है कौन ?
इतनी ज़िद भी जानेजाना, तेरी ठीक नहीं,
मरे हुए मुर्दे को, उठाता है कौन ?
जमीं से ही मिलके है, आरजू मेरे होने की,
नहीं तो इंसानों को इंसान, बताता है कौन.....
© #Kapilsaini
ये वीरानों में मेरे, आता है कौन ?
खुश्क जख्मों के सिवा, कोई नहीं मेरा,
फिर मेरी मिट्टी पे होठ, लगाता है कौन ?
दिखाती है हवाएं, रोब भी ना जाने क्यूं,
दीए बुझने से भी मेरे, बचाता है कौन ?
माशूकों से छुपकर ही तो, लेटा हुआ हूं कब से,
मोहब्बत की बात छेड़कर, फिर हसाता है ये कौन ?
मेरी रूह का मुझपे, कोई हक नहीं,
इस जिस्म-ए-खाकी पे हक, जताता है कौन ?
इतनी ज़िद भी जानेजाना, तेरी ठीक नहीं,
मरे हुए मुर्दे को, उठाता है कौन ?
जमीं से ही मिलके है, आरजू मेरे होने की,
नहीं तो इंसानों को इंसान, बताता है कौन.....
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