...

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बरसों लग जाते हैं
बरसों लग जाते हैं,
खुद की पहचान बनाने में।
रंग पर रंग लगाते रहे हम,
सिर्फ़ एक गलती मिटाने में।

होती ज़िन्दगी की तस्वीर,
आधी सीधी और आधी उल्टी,
मगर हम हमेशा उलझते रहे,
खुद को पढ़ने और दूसरों को समझाने में।

आसान होती है हर बात फिर भी,
क्यों वक्त ले लेते दूसरों को बताने में।
दूरियों को ख़त्म करोगे तो वापिस,
कुछ मिल जाएगा रिश्तों को बचाने में।

बरसों लग जाते हैं.....
© विवेक सुखीजा