...

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ग़ज़ल
सरसराहट से हवाओं की गिला करने लगे
ज़र्द पत्ते आँधियों में इल्तिजा करने लगे

फिर तुम्हारी बरहमी का हम न रख पाए भरम
फिर तुम्हारे पास आने की ख़ता करने लगे

मर न जाऊँ इस इनायत पर कहीं अहबाब की
क़र्ज़ अपना मेरी इज़्ज़त से अदा करने लगे

पहला पत्थर मील का तब सामने आया कहीं
पाँव के जब फूटते छाले सदा करने लगे

तब हुआ अहसास अपनी तंग दस्ती का मुझे
अपने भी जब मुझसे "आलम" फ़ास्ला करने लगे

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