...

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निश्चित
जब हर ओर विपत्ति बढ़ जाये,
संसार नज़र जब ना आये,
तुम ना समझो अन्धेर है ये,
बस समझो समय का फेर है ये,

है ये वो, जो सब पर ही आता है,
ना चाहा जो, दिखलाता है,
दिन जाने? इसमें कितने होते है?
पर कुछ हँसते है, कुछ रोते है,

तुम ना समझो कुछ नया है ये
ये सब पहले से निश्चित था,
ये बस बिरह का खेल है एक
जो जन्मपूर्व शुनिश्चित था,

हाँ, निश्चित था वो चोट नया
जो अपनो से ही मिला तुम्हे,
हाँ, निश्चित थे वो ठोकर भी
जो अपनो ने ही दिया तुम्हे,

हाँ, निश्चित थे वो आँशु भी
उस रात गिरे जो आंखों से,
हाँ, निश्चित था वो हाथ एक
जो छूट गया था हाथो से,

हाँ, निश्चित थे वो सपने सब
जो खुद तुमने संजोये थे,
हाँ, निश्चित था वह जगह एक
तुम बैठ जहाँ पर रोये थे,

हाँ, निश्चित थे वो खुशी के पल
वो एक-2 कर जो टूट गए,
हाँ, निश्चित थे वो शौक नए
जो अब जेहन से रूठ गए,

हाँ, निश्चित थे वो नाते भी
जो रहे साथ और छोड़ चले,
हाँ, निश्चित थे वो इकरार सभी
जो साथ वक़्त रुख मोड़ चले,

हाँ, निश्चित थी वो साँसे भी
जो साथ रूह के साथ गयी,
हाँ, निश्चित थे वो मृतदेह सभी
जो घर अपने अपनो के ना साथ गये,

हाँ, है निश्चित हर समय-सदावट
छोड़ो क्या कल लाएगा,
ये करो खयाल क्या हो तुम अब
जो होना है, छड़ हो जाएगा....

© आदर्श चौबे