मैं शाहजहाँ था उसका, औरं वो मेरी मुमताजं थी
मेरी इश्क़ नहीं,वो मेरी खुशीयों की राजं थीं।
मैं तो सिर्फं इकं पन्ना था, वो तो पुरी किताबं थी।
मेरी खामोशी से भरी इसं जिदंगी मे, वो तो ईकं मीठी सी आवाजं थी।
मैं शाहजहाँ था उसका, औरं वो मेरी मुमताजं थी।
अगरं बजरं जमीं था मैं,तो वो खिलती हुईं गुलाबं थी।
अगरं तपता हुआं धूपं था मैं,तो वो ठंडकं सी बरसातं थी।
अगरं पतझड़ था मैं तो वो बसतं...