...

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दुश्वारियाँ
नहीं है ख़बर तुमको ज़रा भी हमारी।
जिंदगी हादसों में उलझी हुई है हमारी।

राहे उल्फ़त में हम ठोकरें ही खाते रहे।
मोहब्बत में ग़मों का बोझ ही ढ़ोते रहे।

कभी तो ख़त्म हों ज़माने की दुश्वारियाँ।
कभी तो करें हम जीवन में नादानियाँ।

मायूस जिंदगी में कभी तो बहार आये।
क़िस्मत की लकीरें कभी तो संवर जाएं।

कब तक जिंदगी की उलझनों में घिरे रहें।
हर आहट पे चौंक के रास्ता तेरा तकते रहें।

© ऊषा 'रिमझिम'