...

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यहाँ नही..।।
कौन करे यकीं मुहब्बत मे अब यहाँ..,
कि फर्क अब इश्क और हवस मे नहीं..,

जलता है परवाना ख्वाहिश-ए-इश्क मे अपनी..,
कि अब कौन बताये रौशनी उसके बस मे नहीं..,

बिखरी हैं खुशियाँ बेआबरू सी महलों मे यहाँ..,
कि ऐसा कोई जुल्म तो मेरे क़फ़स मे नहीं..,

शमा कर रही थी फरियाद बनने को आफताब यहाँ..,
उसे क्या पता कि इक शरर भी उसके दस्तरस मे नहीं..,

क्या सुनाये अब कोई किसी को दास्तान-ए-वफ़ा.
कि किसी को यहाँ अब भरोसा हम-नफ़स मे नहीं..,

जुबां से घायल कर जातें हैं सब एक दूसरे को यहाँ 'अल्फाज'..,
कि अब तो आलम यह है कि सबके तीर यहाँ तरकस मे नहीं..,

©AK_Alfaaz.

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