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वर्षा ऋतु की एक शाम
अपनी खिड़की में बैठकर
अविरत हो रही वर्षा को तकता हूं
कुछ विस्मृत हो मन ही मन विचरता हूं !

इतना जल बादल कहां से लें आते हैं !
इतने हल्के से बादल इतना भारी
भरकम बोझ कैसे उठाते हैं ?

वर्षा ने जोर पकड़ा है और
भारी बारिश के साथ जोरों
की ध्वनि भी प्रतिध्वनित होती है

पर न जाने क्यों वह शोर की बजाय कर्णप्रिय प्रतीत होता है
जैसे सागर अंबर से बरसता हो
और बरसते हुए अपनी आवाज़ में
गरजता है "मुझको तो जानते हो ना" !

पेड़ों के पत्ते वर्षा में यूं हिल-डुल रहें हैं
मानो नन्हे - मुन्ने अपने माता-पिता से
छुपकर वर्षा में भीगकर
'वर्षा नृत्य' हों कर रहे हैं
आज़ अरसे बाद मिला है मौका
जी भर वर्षा का आनंद हैं लूट रहे

आहिस्ता-आहिस्ता निशा
फिजा में उतरती है
इस तरह वर्षा रानी के संग
एक खुबसूरत शाम गुजरती है ।

- स्वरचित © ओम'साई' १७.०७.२०२

© aum 'sai'