...

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यात्रा
हर स्त्री की अपनी ही यात्रा होती है
उसकी अपनी ही पीड़ाएँ होती है
हर किसी से नकली सा मुस्कुरा कर मिलती है
हर दर्द-ओ-ग़म को छुपा कर मिलती है
कभी मेरी नज़र से देखो हर स्त्री अकेले ख़ुद से ही लड़ती है
रोती है बिलखती है अकेले ही सिसकती है
पर अपने परिवार के सब भेद रखती है
कौंन समझता है उसके इस उधेड़ बुन को जिनको वो अंदर ही रखती है
दो परिवारों के बीच चकिया सी पिसती है
ये स्त्री है साहाब ये कब रुकती झुकती है
मोन साध ले तो फिर किसे क्या समझती है
अपनी पर आ जाये तो दुर्गा रूप रखती है
ये जिंदगी के हर मोड़ पर ध्यान धरती है
बच्चों की परवरिश में कब चूक करती है
यात्राएं सबकी पूरी कर के अंत तक टिकती है
मौत आ जाये तब भी किलसती है
यात्रा हर स्त्री की बहुत कष्ट से गुजरती है