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ग़ज़ल
राधा राणा की कलम से ✍️
अपने पैरों पर ही चलना है हमें।
गिरना है खुद ही संभलना है हमें।
दीए हम वो,जो नहीं बुझते कभी,
आंधियों के बीच जलना है हमें।
कश्तियां रिश्तों की,देंगी साथ ना,
मुश्किलों से ख़ुद निकलना है हमें।
नीर जैसी हों हमारी फितरतें,
नित नए सांचे में ढलना है हमें।
रह गए पीछे नए इस दौर में,
संग ज़माने के बदलना है हमें।
2122 2122 212
अपने पैरों पर ही चलना है हमें।
गिरना है खुद ही संभलना है हमें।
दीए हम वो,जो नहीं बुझते कभी,
आंधियों के बीच जलना है हमें।
कश्तियां रिश्तों की,देंगी साथ ना,
मुश्किलों से ख़ुद निकलना है हमें।
नीर जैसी हों हमारी फितरतें,
नित नए सांचे में ढलना है हमें।
रह गए पीछे नए इस दौर में,
संग ज़माने के बदलना है हमें।
2122 2122 212
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