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भटके राही की इम्तिहान !!!
मंजिलों की राहों से जब राही गुजरता है,
ना जाने क्यों? बहती हैं हवा ऐसी।
मानों मायाकी मोह साथ–साथ है जैसी।।

कभी बहकाता तो कभी सहलाता, भ्रमित हो रहा अंतःकपाल में अनगिनत सवाल।
मानों स्वयं बनने की राह में महाभारत की है शुरुवात।।

राह बोले राही से– सोच मेरे राही, कौनसा पथगमन करना चाहता तु?
विचारों के असमंजस में, आखिर कौनसा पथगमन नैया पार तो पथ भटकाए?
मध मध मुस्काती माया कहती, स्वयं के राह का जीमेदार तु, गमन कर उस राहको, जिस भविष्य के भारको, पहचान पाता तु।।

राह चुनने की राहों में, स्वयं का उत्तर पाने को, करने होते है मंत्रालय की शुरुवात।
जहा स्वयं के अनेकों विचारधाराओ के रूपोंसे– मंत्रिमंडल, सलाहकारो और विपरीत विचारधाराओं के साथ, देते बहस को वारदात।
अगर सही दिशा मिली तो सजन, नहीं तो दुर्जन बनने की शुरुवात।।
© 2005 self created by Rajeev Sharma