...

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सिलेबस के सागर में तैरता मन
सोचा था—
सिलेबस का जंगल पार कर लूँगा,
हर पन्ने पर रख दूँगा क़दम,
हर चैप्टर से कर लूँगा दोस्ती।
पर किताबों की डालियों पर लटके
नए-नए सवाल,
पत्तों की तरह झरने लगते हैं—
कभी एक-एक करके,
कभी बवंडर की तरह।

समय, घड़ी की सुइयों का चाकू बनकर
कटता चला जाता है,
और मैं—
पन्नों के बीच
एक ठहरे हुए शब्द की तरह
अटका हुआ हूँ।

योजना थी कि
21 तारीख़ की सुबह से पहले
हर सवाल को सुलझा लूँगा,
हर मुश्किल को हथेली पर रखकर
देख लूँगा उसकी आँखों...