...

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स्त्री मन
स्त्री मन
मन नहीं
रणभूमि है
जहाँ लड़ता
कोई और नहीं है
यहाँ कर्त्ता
कोई और नहीं है
पक्ष -विपक्ष
का अजब मेल है
सब में आप
और अपनों का खेल है
लड़तीं रहतीं ख़ुद से
हरदम
स्त्री मन
ऐसा भी क्या कुरुक्षेत्र है
द्वन्द ख़ुद का ख़ुद से है
दिन महीने यहाँ नहीं
ये तो रहता
बरस-दर-बरस
शोकाकुल हो
दोनो में ही
या तो जीते या हार हो
वेदना की ऊहा पोह में
लड़तीं रहतीं हर पल
हर दम
स्त्री मन…


© Ritu Verma ‘ऋतु’