...

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नज़रें
नज़रें, बिना कहे बहुत कुछ कह जाती हैं,
कभी-कभी लोगों की नजरे इंसान को तय कर जाती हैं।
हमेशा इन नजरों के बारे में एक बार तो सोचा जाता है,
खुद की नजरों में जो सही है ,
क्यों दूसरों की नजर में गलत हो जाता है।
याद हो या बात सब नजरों के दायरे में आता है
झूठ कभी-कभी इन नज़रों को सबसे ज्यादा भाता है
किसी के सपनों की अच्छाई से ज्यादा उसकी गलतियों पर ध्यान जाता है
और इस बात के लिए उसे बार-बार टोका जाता है
क्यों खुद को जो अच्छा लगे वह इन नजरों को भाता है
और न लगने पर गलत हो जाता है
क्यों अनदेखी सुनी बातों पर विश्वास हो जाता है,
और जो सामने है वह दिख नहीं पाता है।
क्यों समाज की नजरों के सामने सब को झुकना पड़ता है
और इसके दायरे में रहकर सब कुछ करना पड़ता है
क्यों ये नजरे खुद की गलती पर झुकती
और दूसरों की गलती पर है देहाती
जज और जजमेंट तो इनका पुराना तरीका है
और इन नजरों का हर तरह के लोगों के साथ अपना तकरार का तरीका है
सच है, कि दूसरों का नजराना बदला नहीं जा सकता
और उनके नजर आने में खुद को रखा भी नहीं जा सकता
नजर और नजराना तो एक तराना है ,
जो किसी का बदला नहीं जा सकता ।।