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द्रौपदी और भगवान शिव
द्रौपदी और भगवान शिव

तपस्या का फल देने आएं
शिव शंकर जब प्रसन्न हो
वर मांगो जो द्रौपदी चाहती, संकोच न मन में तिल भर हो।।

गागर में समाई हो कितनी
यह बात भी थोड़ी ध्यान में हो
सागर न मांगना अपने वर में, बस इतनी-सी सावधानी हो।।

मैं धन्य हो गई आपको देखकर
तपस्या जो मेरी पूरी हो
क्षमा करना प्रभु मुझको, कोई भूलचूक जो मेरी हो।।

पति का वर मैं पाना चाहती
जैसी हर कन्या की इच्छा हो
आपकी कृपा से वर मिले मुझको, सौभाग्य में मेरे वृद्धि हो।।

देना पति मुझे ऐसा प्रभू
पूर्णता धर्म, सत्य की जिसमें हो
बजरंगी-सा शक्तिशाली, भगवान परशुराम-सा धनुर्धर हो।।

सुंदरता उसमें ऐसी चाहिए
देख काल भी उसे आकर्षित हो
सहनशीलता में न शानी जिसका, ऐसा पति एक मेरा हो।।

आश्चर्यचकित हुए प्रभु सुनकर
क्या कहती, क्या चाहती हो
एक ही वर में पांच वर मांगे, नारी में चपलता कितनी हो।।

मुस्करा दिए प्रभु सुनकर
द्रौपदी, असंभव ऐसा वर देना हो
नारायण के शिवा न ऐसा पुरुष है दूजा, बदल लो मांग जो संभव हो।।

द्रौपदी अड़ गई जिद्द पर अपनी
आपको यही वर मुझको देना हो
क्या असंभव और क्या कठिन है, आप तो परमेश्वर शंभू हो।।

ईश्वर कहते प्रभू आपको
क्यूं वर देने में फिर देरी हो
मैं जिसकी कामना करती आपसे, मुझे प्राप्ति इच्छित वर की हो।।

तथास्तु कहकर वर देते प्रभु
एक दिन जो चाहती तुम पाओगी वो
पांचाली तुम्हें दुनियां कहेगी, तुम कुरुश्रेष्ठ महारानी हो।।