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-वो दरवाजे पर खड़ी थी-
               -वो दरवाजे पर खड़ी थी-

वो दरवाजे पर खड़ी थी मैं खिड़की में खड़ा था,
पर आज उसकी नजर में अंतर ही बहुत बड़ा था,

मैंने खोल के फिर वह देखा उसने भेजा था जो लिफाफा,
उसमें दर्ज एक एक अक्षर मेरे सीने पे लड़ा था,

बोली सपने थे जो सजाए सब खत्म हो गए है,
मजबूरियों के बोज में सब भस्म हो गए है,

कल बहन बड़ी मेरे लिए एक रिश्ता लेकर आई,
वह बनने जा रहा है मेरे बाप का जमाई,

सुना है हमारे घर पर उसके  एहसान बहुत बड़े हैं,
उसी से लेके कर्ज हमारी छत के छतीर पड़े हैं,

हर वक्त  बेवक्त पर वो काम बहुत आया,
उसी ने कर्ज देकर मेरे बाप को बचाया,

मां बोली वो खुद आके तेरा हाथ थाम रहा है,
लाखों का जो दिया कर्जा नहीं वापस मांग रहा है,

मेरे भाई के विदेश की भी उसने बात है चलाई,
बोला सब कुझ संभाल लूंगा अगर करदो तुम सगाई,

मुझे किस्मत ऐसा तोड़ा अब जख्म रिस रहे है,
इस सौदेबाज़ी में मेरे सब सपने बिक रहे हैं,

सबको मुझसे बहुत उम्मीदें, बहुत सपने दिख रहे हैं,
मेरे अपने ही अब ऐसी मेरी किस्मत लिख रहें हैं,

मजबूरियों के आगे सदा घुटने टेकती हैं,
गरीब की ये आंखें सिर्फ सपने देखती है,

मैंने खत्म की थी जब चिट्ठी बुत्त बनके मैं खड़ा था,
वह  उधर सिसक रही थी, में इधर रो पड़ा था,
वह दरवाजे पर खड़ी थी, मैं खिड़की में खड़ा था,

मुझे माफ़ करना कहके वो अंदर हो गई थी,
लगा ली थी कुंडी पर रूह से रो रही थी,

खिड़की में बंद करके संभला और फिसल गया था,
उसके घर और उसके शहर से "जोसन"  दूर निकल गया था।
-मिहरबान सिंह जोसन-
© Meharban Singh Josan