...

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गुड़ियों से गुड़िया तक....
आई थी वो मेरे पास
मेरी किताबों को ऐसे निहार रही थी जैसे चाहत हो उसकी
दीवार पर लगे मानचित्र को देख पूछा:हम कहां रहते है इसमें..?
नहीं , कोई बड़ी बुजुर्ग महिला नहीं थी..
एक अच्छे भले परिवार की बेटी थी..13 साल की
कभी मां का आंचल सिर पर रख मां जैसा बनने का शौक रहा था
आज सोलह श्रृंगार कर घूंघट पहने सामने खड़ी थी मेरे
गुडे गुड़ियों से घर घर खेला करती थी कभी..
एक दिन वह खेल जिन्दगी.. और खुद उस खेल की गुड़िया बन गई
बचपन में किसी की रानी बनने की कहानी सुना करती थी
आज खुद वो कहानी का एक किरदार बन गई
कितनी खुशनसीब है न वो बेटी जिसकेे सारे खेल हकीकत बन गए ..??
पर.... बचपन... वो तो जाने दिया होता
अपने मस्तिष्क के इन विचारों के प्रवाह से बाहर आ देखा मैने उसे ..
मेरी किताबों को एकटक देख, मां के जैसे उन्हें सहलाए जा रही थी
वह थोड़ा खुद को संभाल.. अपने चेहरे पर पर्दा कर
आंखों में नमी लिये.. जाते जाते कह कर गई
"पढ़ना था मुझे भी"...!!

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