...

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औरत...
कौन हो तुम....?

अपनों के हर दुःख को पत्थर सा चिर कर नदी सी निकल जाती हो
पर न जाने क्यूं अपनों के कहे एक शब्द से बिखर जाती हो

अपनों की खातिर पूरी दुनिया से लड़ जाती हो
पर न जाने क्यूं खुद के लिए एक शब्द ना बोल पाती हो

अपनी हर जिम्मेदारी को निभा नाजुक रिश्तों को संभालती हो
पर इस बीच न‌ जाने क्यूं खुद को भूल जाती हो

ऐसी कोई ठोकर नहीं जो तुम्हें गिरा सके
पर न जाने क्यूं कभी हाथ से रेत सी फिसल जाती हो

दूनिया को जीत लेने का जज्बा रखती हो
पर न जाने क्यूं कभी अपनों से ही हार जाती हो

हैरान हूं ये देखकर कि कुदरत ने तुम्हें क्या बनाकर भेजा है
जहां दुर्गा, लक्ष्मी,काली,भवानी सी शक्ति तुम्हें दी
वहीं न जाने क्यूं फूल सी मुरझा जाती हो

समझना नामुमकिन है तुम्हें कि आखिर... कौन हो तुम..?

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