पंख
पंख पास तो हैं मेरे,
पर हौंसलों की कमी हैं,
आसमां हैं मेरे पास भी,
पर ना जाने क्यों उसके दायरें,
छोटे हैं।
मैं उड़ता,
फिर गिर जाता,
फिर चिल्लाने में सास भर आती मेरी,
हार कर पास में रखें,
दो निवाले अनाज के,
चुग आता।
दीवारें सोने की थीं,
बाहर से देखनें में सुंदर भी,
पर ना जाने सोने की दीवारों ने,
पंख छीन लिये मेरे।
बरसों हुआ,
खुला आसमां देखें,
एक टहनी से दूसरे टहनी बैठें,
साथियों के साथ,
आसमां की ऊची परतों में खो जानें,
खाने की तलाश में,
भोर में निकल जाना,
थक के चूर होकर ,
किसी नदी के पानी से प्यास बुझाना।
बरसों हुआ,
कुदरत को निहारें,
मेरी खिड़की,
छोटी हैं,
समेट ले मेरी सारी,
खुशियों को एकसाथ,
वो उन सोने की जंजीरों में दम नहीं।
मस्ती खो गयी मेरी,
पंख भूल गए जैसें उड़ना मेरे,
आवाजें थक गयीं,
आजादी के लिए,
पर मेरे लिए चारदीवारी ही,
कैद बना दी मुझ पर हक जताने वालों ने।
© shivika chaudhary
पर हौंसलों की कमी हैं,
आसमां हैं मेरे पास भी,
पर ना जाने क्यों उसके दायरें,
छोटे हैं।
मैं उड़ता,
फिर गिर जाता,
फिर चिल्लाने में सास भर आती मेरी,
हार कर पास में रखें,
दो निवाले अनाज के,
चुग आता।
दीवारें सोने की थीं,
बाहर से देखनें में सुंदर भी,
पर ना जाने सोने की दीवारों ने,
पंख छीन लिये मेरे।
बरसों हुआ,
खुला आसमां देखें,
एक टहनी से दूसरे टहनी बैठें,
साथियों के साथ,
आसमां की ऊची परतों में खो जानें,
खाने की तलाश में,
भोर में निकल जाना,
थक के चूर होकर ,
किसी नदी के पानी से प्यास बुझाना।
बरसों हुआ,
कुदरत को निहारें,
मेरी खिड़की,
छोटी हैं,
समेट ले मेरी सारी,
खुशियों को एकसाथ,
वो उन सोने की जंजीरों में दम नहीं।
मस्ती खो गयी मेरी,
पंख भूल गए जैसें उड़ना मेरे,
आवाजें थक गयीं,
आजादी के लिए,
पर मेरे लिए चारदीवारी ही,
कैद बना दी मुझ पर हक जताने वालों ने।
© shivika chaudhary