...

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गहराई
शब्द निरर्थक हो जाते है
या कुछ सीमित कर देते है
आखिर मन का क्या तौल
दूर से कोई इतना करीब क्यूँ
पास है तो जैसे मूरत कोई
आखिर शब्द भी हद है
अहसास का सामर्थ्य क्या झेले
शायद कुछ भी नहीं होता
लेकिन बेहद भी तो होता है
कोई बांध लेता है
तो कोई बँध जाता है
क्या निरंतरता अर्थहीन है
गहराई सीमित तो नहीं
बहुत कुछ सिमटा है
शब्दकोष में जैसे खोया
नील गगन से ऊपर
कुछ पाताल सा गहरा
नहीं जानता क्या है
लेकिन सारा मंथन
जैसे तुम पर सिमट जाता है
© "the dust"