...

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//मां//
उसे अपनी फिकर कहां होती हैं
के वो तो बस मां होती हैं

दर्द सह कर भी हमें दुनिया दिखाती हैं
मगर पहली बार हमें रोता देख खुश होती है

उसे अपनी फिकर कहां होती है
वो तो बस मां होती हैं

भले चांदी के पलने में झुलाना
मुमकिन नहीं
पर हमें सूखे में सुलाकर खुद गीले में सोती है

उसे अपनी फिकर कहां होती हैं
वो तो बस मां होती हैं

बिछा देती हैं कदमों में सारा जहां हमारे,
पंख देकर हमारे सपनों को, खुद पेड़ हो लेती हैं

उसे अपनी फिकर कहां होती है
वो तो बस मां होती हैं

कैसे पिरो दूं उसे कविता में भला मैं
के मां शब्दों में कहां बयां होती हैं

उसे अपनी फिकर कहां होती हैं
के वो तो बस मां होती हैं

© shobha panchariya
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