...

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ज़िन्दगी के रंग
इच्छाओं के समुद्र में डूबती चली,
मैं इक स्वतंत्र परिंदा थी,
फिर भी,
परो पे नहीं, पैरों पे चली।

उड़ने की इच्छा मेरी,
सोचा ईक पल में सब पार कर जाऊगी,
फिर मन में इक आवाज़ आयी,
नहीं आज तो हर इक गली,
पारकर कर ही जाऊंगी।

बाहर निकली तो किसी को रोता,
किसी को हंसता देखा,
दुनिया बहुत अजीब थी,
जिसका ना कोई रंग था,
ना कोई रेखा।

गली की पहली मोड़ पे
नन्हे नन्हे माशुम बच्चों को खेलते देखा,
जिनके चेहरे पे मुस्कान थी,
आह मैंने क्या अद्भुत दृश्य देखा,
वो बच्चपन ही है जिसे बिना डर के जिते हैं
मैंने ये बड़ी देर से सीखा।

दुनिया कितनी जल्दी बदल जाती है,
लेकिन गली के...