...

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ज़िन्दगी के रंग
इच्छाओं के समुद्र में डूबती चली,
मैं इक स्वतंत्र परिंदा थी,
फिर भी,
परो पे नहीं, पैरों पे चली।

उड़ने की इच्छा मेरी,
सोचा ईक पल में सब पार कर जाऊगी,
फिर मन में इक आवाज़ आयी,
नहीं आज तो हर इक गली,
पारकर कर ही जाऊंगी।

बाहर निकली तो किसी को रोता,
किसी को हंसता देखा,
दुनिया बहुत अजीब थी,
जिसका ना कोई रंग था,
ना कोई रेखा।

गली की पहली मोड़ पे
नन्हे नन्हे माशुम बच्चों को खेलते देखा,
जिनके चेहरे पे मुस्कान थी,
आह मैंने क्या अद्भुत दृश्य देखा,
वो बच्चपन ही है जिसे बिना डर के जिते हैं
मैंने ये बड़ी देर से सीखा।

दुनिया कितनी जल्दी बदल जाती है,
लेकिन गली के दुसरे मोड़ पे,
बच्चों से सुना की,
हमारी 16से17 कि उम्र स्कूल जाने आने में ही निकल जाती है
पर कुछ भी हो मैडम जी बड़ी अच्छी बातें सिखाती है,
घर जाने पे मॉं प्यार से खाना खिलाती हैं।
दर्द के पीछे छोटी मुस्कान,
हर दर्द छिपाती हैं
ये उमर भी जल्दी ही निकल जाती है।

कल गया आने वाला सवेरा होगा
किसी को कॉलेज के गेट पर,
किसी को केंटीन में देखा,
तभी आवाज आयी
कॉलेज लाइफ है भइया, हमने तो इसमें किसी को पढ़ते नहीं देखा।

किसी को इन्टरव्यू देते,किसी को लेते देखा ।
नौकरी नहीं मिली,
बड़ों के ताने
तु तो अकेला ही मरेगा।

मन में उदासी के साथ आगे चले
आगे चलने पर एक दादा को देखा,
दादा परेशान दिख रहे थे,
नौकरी थी, पैसा था,
पत्नी का साथ,बेटा भी
पर कमाने की उम्र नहीं
तो उनका रोटी पे हक नहीं देखा,

समाज में ढोंगियों का ढोंग भी देखा,
जिन्दा को रोटी नहीं,
मरने पर मौसर देखा,

अंत में एक ख्याल आया,
काश मैंने इसे अंदर से नहीं,
उपर से ही देखा होता।

© Jyoti Swami