अकेलापन....
एक घर विरान पड़ा है।
खाली नहीं है वो पर सुनसान बड़ा है।
सिर्फ किसी के सिर पर छत और पैरों के नीचे ज़मी है।
बरामदे में एक कुर्सी लगी है पर खैरियत पूछने वाला कोई नहीं है।
और अकेला एक बेज़ान पड़ा है।
एक घर विरान पड़ा है।
गूंजा करती थी कभी हँसी दीवारों से यहाँ।
ईंट- ईंट से जुड़ी थी इस घर की खुशियाँ।
हुआ करती थी चहल- पहल यहाँ भी।
सींचे जाते थे पेड़- पौधे कभी।
पर अब सूखा पूरा बागान पड़ा है।
एक घर वीरान पड़ा है।
होती थी कभी यहाँ भी होली...
खाली नहीं है वो पर सुनसान बड़ा है।
सिर्फ किसी के सिर पर छत और पैरों के नीचे ज़मी है।
बरामदे में एक कुर्सी लगी है पर खैरियत पूछने वाला कोई नहीं है।
और अकेला एक बेज़ान पड़ा है।
एक घर विरान पड़ा है।
गूंजा करती थी कभी हँसी दीवारों से यहाँ।
ईंट- ईंट से जुड़ी थी इस घर की खुशियाँ।
हुआ करती थी चहल- पहल यहाँ भी।
सींचे जाते थे पेड़- पौधे कभी।
पर अब सूखा पूरा बागान पड़ा है।
एक घर वीरान पड़ा है।
होती थी कभी यहाँ भी होली...