...

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अकेलापन....
एक घर विरान पड़ा है।
खाली नहीं है वो पर सुनसान बड़ा है।
सिर्फ किसी के सिर पर छत और पैरों के नीचे ज़मी है।
बरामदे में एक कुर्सी लगी है पर खैरियत पूछने वाला कोई नहीं है।
और अकेला एक बेज़ान पड़ा है।
एक घर विरान पड़ा है।

गूंजा करती थी कभी हँसी दीवारों से यहाँ।
ईंट- ईंट से जुड़ी थी इस घर की खुशियाँ।
हुआ करती थी चहल- पहल यहाँ भी।
सींचे जाते थे पेड़- पौधे कभी।
पर अब सूखा पूरा बागान पड़ा है।
एक घर वीरान पड़ा है।

होती थी कभी यहाँ भी होली -दिवाली।
हँसते- गाते थे लोग और बजती थी ताली।
अब खाली पड़े हैं सारे कमरे ।
बच्चे घूमते है विदेशों में पर नहीं आते हैं यहाँ रहने।
कहते हैं पिता जी कैसे आऊँ मैं दफ़्तर में बहुत काम पड़ा है।
एक घर वीरान पड़ा है।

इस परिवार के सदस्य दस है।
पर जो यहाँ है वही तो बेबस है।
अपनों से मिलने को तरस रही आँखे।
शायद इसी उम्मीद में अब बची है कुछ साँसे।
लगता है गुमनाम पूरा खानदान पड़ा है।
एक घर वीरान पड़ा है

सुख चैन गवाँ कर जिन्होंने लायक बनाया अपने संतान को।
भूल चुके है वे लोग माँ- बाप के योगदान को।
क्यों नहीं खुश होते बच्चे बुजुर्गों को अपने बीच पाकर।
परिवार के नींव को हीं चले जाते है ठुकराकर।
क्या वे भूल गए उनपर माँ बाप का एहसान बड़ा है।
एक घर वीरान पड़ा है।
© shalini ✍️