...

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गाँव..
हर पत्थर गो कहे है कोई बचपन की कहानी
अब भी वही खुशबु याँ हर जर्रे में बसता है..

मेरे गाँव का घर टूट के खंडर हुआ फिर भी
अब भी मेरा दिल ईंटों के मलबे में रहता है..

हर चेहरा मुझे औऱ मैं उसे जाने है पुश्तों से
हर शख़्स कुछ ना कुछ, मेरे रिश्ते में लगता है..

मेरे दादा के परदादा का लगाया हुआ बरगद
फैलाये हुए शाख, मुझे उलफत से तकता है..

झूमे है याँ अरहरी, मुझे देख ख़ुशी में
सरसों का फ़ूल देख मुझे औऱ निखरता है..

मेरा ज़िस्म हो गया हो अब भले ही शहर का
मेरे रूह में अब भी मेरा वो गाँव बसता है..

सोहबत में शहरी दोस्तों के मैं अंगरेजदां हुआ
पर, अंदर वही एक गांव का लड़का मचलता है..

© Rajnish Ranjan