...

13 views

मैं बहुत बोलता हूं
मैं बहुत बोलता हूँ,
बोलकर मैंने कई रिश्ते खराब किए,
खो दिए मैंने कई अपनों को,
अब मैं अकेला हो गया हूँ।
अक्सर सोचता हूँ,
कि इसमें कसूर किसका है?
फिर मैंने पाया,
गलती मेरे बोलने में नहीं है।
क्योंकि बचपन से ही हमें सिखाया गया,
कि दिल खोलकर बोलो,
सच बोलो, हक के लिए बोलो,
मौन हो गए तो गौण हो जाओगे।

लेकिन जब मैंने बोलना शुरू किया,
तो सभी ने कहा,
"ज्यादा बोलते हो, कम बोलो।
हर जगह मुँह मत खोलो,
सोच-समझकर बोलो,
जहां ज़रूरत है, वहीं बोलो।"

अब मैं दुविधा में हूँ,
किसकी बात सुनूं मैं?
खुद की सुनूं या
लोगों की सुनूं मैं?
लोग तो यह भी कहते हैं,
कि लोगों का काम है कहना,
तो क्या ये लोग मुझे बताएंगे,
कि सोच-समझकर कैसे बोला जाता है?
क्या इससे सच बदल जाता है?

जब सोचा कि सिर्फ ज़रूरत पर बोलूँ,
तो कई बार रिश्ते टूट जाते हैं,
अन्याय हो जाता है,
झूठ को सच बना दिया जाता है।
लोग तमीज़ भूल जाते हैं,
हदें पार कर जाते हैं।

तो इन तमाम दुविधाओं का मैंने हल निकाल लिया—
मैं जैसा हूँ, वैसा ही रहूँगा।
दिल की सुनूँगा और
उसी का अनुसरण करूँगा।
जब दिल करेगा, कम बोलूँगा,
और जब दिल करेगा, ज्यादा बोलूँगा।
तुम सुनोगे, तो अच्छी बात है,
नहीं तो मैं खुद से ही
बात कर लिया करूँगा।










© प्यारे जी
All Rights Reserved