...

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नींद की आरज़ू
रात की सियाही तले
जागती आँखों से सपने भले

चैन की नींद को हम तरसते
जब तनहाइयों के बादल बरसते

न कोई हाँसिल न कोई हमदम
दर्द में भरते हैं हम हर दम

इस खामोशी के सन्नाटे हैं गहरे
रात में जो लगते हैं आवाज़ों पे पहरे

ज़हन ही बोलता रहता है रातभर
और कटती हैं रातें अपनी जागकर

इस बंजर ज़मीं पे कोई बारिश तो हो
इस वीराने में नींद की कोई साज़िश तो हो

कोई तो अपना असली वजूद जाने
इस रात की बेबाकी को कोई पहचाने

हम भी सिराहने पे सर रख के आँखें मूंदें
और सपनों में देखें बरसती बूँदें

© Tanha Musafir