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ओडिशा रेल त्रासदी
कोई घर जाने को निकला था
किसी का ख्वाब राहें तकता था
किसी पर जिम्मेदारियां थी कई
कोई घूमने का शौक रखता था
एक ही झटके में खत्म हुआ सब
जाने कौन सा सैलाब आया था
सम्भलने का वक़्त भी ना मिला
काल स्वयं प्राण हरने आया था
दूर दूर तक झाड़ियों पर टंगे शव
रेल में फंसे घायलों की चीत्कारें
मिट्टी के खिलौने सी
टूट कर बिखरी रेल गाड़ियां
वो कचूमर बना डिब्बा
कितनों की कब्र बन गया
कितने परिवार तबाह हुए
कितने दिलों का दर्द बन गया
जो हुआ बहुत बुरा हुआ
मगर सवाल अभी भी आता है
आखिर यूँ ही नहीं कोई
काल के गाल में समाता है
ये त्रासदी गड़बड़ी थी कोई
या किसी की रची साजिश थी?
एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसा या
जानबूझ कर ज़िंदगी की नुमाइश थी?

© Anirya