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निरुत्तर सवाल
निरुत्तर सवाल

आज फिर निरुत्तर रह गए मेरे सवाल
आज फिर वह चीख कर छुपाना चाहती है, कुछ और
आज फिर वह नजरों को छुपा रही थी
मैं वहीं उसकी ओर देखे जा रहा था
उसकी आंखें जो सजा से बचने के लिए
प्रपंच रच रही थी
वह विवशता को सामने लाने से बचा रही थी नाहक
वह संवेदनाओं को डुबो देखा चाहती थी
गहरे खारे समुद्र में
वह बहक कर
अजनबी की जंजीरों में, जकड़े जा रही थी
बरबस,
वह मर्यादाओं को लांघ चुकी थी शायद
अपनी देह को सौंप देना चाहती थी

मेरे सवाल मस्तिष्क पर गहरे चोट कर रहे थे
तभी जीभ से अंगारे उगल कर
भस्म कर देना चाहती थी
सच्चाई को

इसलिए वह सावन में रोई नहीं
बड़ी ढीटता से बगले झांक रही थी

मेरे टप टप बहते आंसू
मुझे ही अपराधी बता रहे थे
जब सच ही छुप गया था, झूठ के साए में
मैं अपने आंसुओं को छुपाना नहीं चाहता था
मैं आज खुद दोषी था
उसपर
जरूरत से ज्यादा भरोसा करके

#श्रीलाल जे एच आलोरिया
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