...

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बँटवारा
सामानों का ढेर था
घर की चौखट पर।
तमाशबीनों के जमघट के बीच,
उछलकूद मची थी द्वारे पर।
कोई बर्तनों को समेट रहा था,
कोई बिछौने गिन रहा था,
बडी को भा गयी थी माँ की बिछियाँ,
छोटी कंगनों को निहार रही थी।
घर के कोने नप रहे थे तो,
कहीं चुल्हा भी कर रहा था
इंतज़ार अपनी बारी का।
वो वहीं लाचार बैठा,कूँध रहा था ।
कभी ताव में उठता,
लड़को को फटकार लगाता,
कभी बहुओं को समझाता।
तैश में वहीं बिखरी,
चिजों को लात मारता,
कभी रोती पत्नि को पुचकार आता।
धम्म से बैठ गया वही भूमि पर।
यादों के पन्नो को पलटता हुआ।
बचपन...