...

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बँटवारा
सामानों का ढेर था
घर की चौखट पर।
तमाशबीनों के जमघट के बीच,
उछलकूद मची थी द्वारे पर।
कोई बर्तनों को समेट रहा था,
कोई बिछौने गिन रहा था,
बडी को भा गयी थी माँ की बिछियाँ,
छोटी कंगनों को निहार रही थी।
घर के कोने नप रहे थे तो,
कहीं चुल्हा भी कर रहा था
इंतज़ार अपनी बारी का।
वो वहीं लाचार बैठा,कूँध रहा था ।
कभी ताव में उठता,
लड़को को फटकार लगाता,
कभी बहुओं को समझाता।
तैश में वहीं बिखरी,
चिजों को लात मारता,
कभी रोती पत्नि को पुचकार आता।
धम्म से बैठ गया वही भूमि पर।
यादों के पन्नो को पलटता हुआ।
बचपन की यादों में खोया,
बीती घडियीं को गिनता
स्मृतियों के झरोखें में
कई तस्वीरें उभर आईं।
पिताजी भी दो भाई थे,
मगर अपार स्नेह के बीच
कटुता न टिक सकी।
अपने भी जोड़ कर रखा था
उसने सभी भाइयों को,
आखिर चाचा के लड़के
भी तो यहीं पले थे।
वो पत्नि को ब्याह कर लाना,
बच्चों से खिलखिलाता आँगन,
भाइयों संग की वो मौज मस्तियाँ,
माँ-पिताजी के छाँव तले
कितने खुशनुमा थे वो पल।
जो बीत गए किसी ख्वाब की तरह।
न जाने किसकी नजर लगी थी।
धीरे धीरे उखड़ते खपड़ो संग,
वो यादें धूमिला रहीं थी।
खेतों में मेंढे खिंचती रही
उसके सामने, सँजोये
रिश्ते बिखरते गए।
पुरखों की बनाई,हवेली में
दिवार की रेखाओं संग
सपने उजड़ते गये।
तकरारों का सिलसिला कुछ यूँ चला
गाँठ पड़ी रिश्तों में
विश्वासरूपी गाडी के
पुरजे बिखर गये।
बाह्य दिखावटी रिश्ते के
नीरा खोखले आवरण ही अब
शेष रह गए।