...

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आख़री सफर

ना सुना ना देखा ना ही कभी सोचा था किसीने,
नुमाइशें लाशो की लगेंगी, कभी गंगा के किनारे भी !

ज़िन्दगी देने वाले डॉक्टरों को कभी सोचा ना था किसीने,
जान अपनी ही गवां देंगे, लड़ते लड़ते इस शैतान कोरोना से वो भी !

लाशों के ढेर पर भी सियासत कर रहे है कुछ लोग यहाँ,
इंतेक़ाल किस का हुआ, छुपा रहे है नामो की फेरिस्त को भी !

कोई बेटी को कांधे पे उठा कर खुद चल पडा विदा करने को,
चार दोस्त ना मिले किसी की मैयत को कांधा देने को भी !

ना जाने बाप की मौत भी वो कैसे सेहन कर रही है देखो,
मज़बूर हो गई मुल्क़ कि बेटियां, कांधा देने पिता को भी !

माना के आख़री सफर था किसी खुदा के बन्दे का "रवि",
दुआ मेरी है ना हो ऐसी दुर्दशा किसी दुश्मन की कभी !

राकेश जैकब "रवि"