...

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मैं ही क्यों ?
एक दिन बैठे- बैठे एक ख्वाब आया
तभी आंखों से बहते आंसुओं का मैंने साथ पाया
बोला मैंने, थक गई हूं अब रोते-रोते
अंदर से टूट गई हूं ,यह जिंदगी जीते जीते

अपनों ने भी साथ छोड़ दिया है
सब कुछ होते हुए भी सब कुछ खो दिया है
भरोसा नहीं है जब मुझ पर
तब आखिर क्यों दिया है मुझको जन्म ?

जीते हुए भी मरा हुआ एहसास होता है
आंखों में उम्मीदें नहीं निराशा का साथ होता है
अंधेरी में रहना अब आम सा लगता है
उजाले में भी अंधेरा अब दिखता है
अब बस डूब जाने का दिल करता है

रोना अब एक आदत बन चुकी है
कांटों पर चलना अब सीख चुके हैं
तब भी अंदर से टूटा मन कहता है
आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों होता है ?
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