दुनियादारी रास न आई।
"वो क्या सिखाएँगे हमें अब जीने का सही सलामत सलीका,
पल पल बदलती है ज़िंदगी अपना न जाने क्यों तरीका।
रुतबे के पीछे, इंसानियत का मिट गया हरसू नाम-ओ-निशाँ ,
ख़ुद ही जमाई महफ़िल,ख़ुद ही हुए हम मंज़िल-ए- कारवान।
पाना तो बहुत था मगर उलझकर रह गए जिम्मेदारी में,
दूसरों की आपूर्ति में बची नहीं साँसे...
पल पल बदलती है ज़िंदगी अपना न जाने क्यों तरीका।
रुतबे के पीछे, इंसानियत का मिट गया हरसू नाम-ओ-निशाँ ,
ख़ुद ही जमाई महफ़िल,ख़ुद ही हुए हम मंज़िल-ए- कारवान।
पाना तो बहुत था मगर उलझकर रह गए जिम्मेदारी में,
दूसरों की आपूर्ति में बची नहीं साँसे...