...

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दुनियादारी रास न आई।
"वो क्या सिखाएँगे हमें अब जीने का सही सलामत सलीका,
पल पल बदलती है ज़िंदगी अपना न जाने क्यों तरीका।

रुतबे के पीछे, इंसानियत का मिट गया हरसू नाम-ओ-निशाँ ,
ख़ुद ही जमाई महफ़िल,ख़ुद ही हुए हम मंज़िल-ए- कारवान।

पाना तो बहुत था मगर उलझकर रह गए जिम्मेदारी में,
दूसरों की आपूर्ति में बची नहीं साँसे बिखर गई खुद्दारी में।

तन्हा निकले थे जिस सफ़र में अन्जानों ने दिया थोड़ा साथ,
मगर वो साथ भी तो कुछ दिनों का जैसे बीते कल की बात।

भाव-व्यवहार से क्या लेना देना सब ने खोजी बस सहूलियत,
हुआ जब मतलब पूरा ओढाकर लादी जताए वो मशरूफ़ियत।

दर्द की इंतिहा तो देखिए, अपनी चौखट लगी सबसे प्यारी,
बेच दिया हो मानो ख़ुद को लोगों ने समझा बेचारी।

साधारण से ख़्वाब देखे वहाँ होशियारी खास न भाई,
बीत जाएँगी उम्र यूँही समझिए दुनियादारी रास न आई।।"
© ©Saiyaahii🌞✒