...

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दहलीज़
आसान नहीं होता हैं,
एक लड़की का घर की,
दहलीज को लाँघ जाना,
लाख पहरों की चारदीवारी,
खड़ी मिलती हैं।
भाग जाऊ कहाँ मैं,
जब हर रास्ते पर खड़ें,
चौकीदारों की नजरें,
पकड़ती है।
सास लेने की इजाजत,
भी जब लेनी पड़ें,
समाज के ठेकेदारों से,
वहा कैसे एक लड़की,
तोड़ आये उन हदों की,
चारदीवारी को।
जहा हर उसके फैसले,
दूसरे के काँधे हो,
वाह उसके खुद के,
सपने बुनने की,
इजाजत कहा।
मुस्कुराहट भी जब,
बंदी हो दूसरों के,
बातों की,
नजरें उठा के बातें,
जब मोहताज हो,
किसी के हुकुम की,
लगता हैं इंसान नहीं,
जीनी हैं किसी जिन की।
दिल को चोट लगी हो,
ये परवाह किसको हैं,
गुलाम हैं वो सबकी,
उसकी खैरत की चिंता किसको हैं।
इज्जत से ना जाने,
क्यों जोड़ लिया समाज ने,
बंदी बना दिया,
बिना लोहे के जंजीरों में डालें,
सारे पंख कुतर डालें।
चिंता ना जानें,
क्यों चिता बन गयी,
मेरे जीगते जागते अरमानों की,
मैं बस एक सामान हु,
जो कुछ समय बाद,
छोड़ दी जाती,
किसी और के आँगन में।

© shivika chaudhary