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कुर्बानियाॅऺं
ऐसे कोई घर आता है क्या.....
अपनों को कोई रुलाता है क्या.....
//पिता
जिन हाथों से सिंचा तुमको,
आज विदा पुष्पः ले झुके हुए||
जिन कंधे पे खेला तुम ने,
वो आर्थी बोझ से दबे हुए||
जिन ऑऺंखों के तुम तारें थे,
आज मान सरोवर बने हुए||
जिन होठों के मुस्कान थे तुम,
वो शब्द विहीन सिले हुए ||
मेरे माथे की पगड़ी हो तुम,
वो आज औऱ गौरव से उठे हुए||
दुःख इतनी है,
मातृ-भक्ति निभाने में ,
सारे रिश्ते नाते छोड़ गए||

ऐसे कोई घर आता है क्या.....
अपनों को कोई रुलाता है क्या.......
//पत्नी
मेरी पाजेब की हर झंकार तुम से ही,
धरणी पे अब टूटे-बिखरे है ||
नथ, चुड़ियाँ, बिछुए भी,
मुझे से कुछ रूठे- उखड़े है ||
रोती बिलखती सिंदूरी मेरी,
पोछने सहस्त्र हाथ आज बढ़े हुए||
कितने ही रीतियों - विधियों से,
ये जीवन जाने गढ़े हुए ||
उन बढ़ती हाथों से मैं,
बस यही कहना चाहूंगी ||
बंधन जब जन्मो जन्मो का हो,
अल्प विराम से नहीं डगमगाऊॅऺंगी ||
विष- विसादो के प्यालों को,
निलकंठ बन पी जाऊँगी||
अमर शहादत के अमर सौभाग्य को ,
मैं नहीं कभी मिटाऊँगी||

ऐसे कोई घल आटा है का .....
अपनों को कोई लुलाता है क्या.....
//बच्चे
पापा आये, पापा आये ,
संग पुलिस अंकल भी आये||
शहनाई वो बजा रहे,
पापा को फूलों से वो सजा रहे||
मिठाई मेली नहीं लाए पापा,
थैली के कोने-कोने मैंने झाका||
बोले थे खिलौने भी इसी बरी लाएंगे,
क्या बाद में यहीं दिलवाएंगे?
आप इत्ता जो सो रहे,
घर में सब रो रहे||
चलो, अब और चिढ़ाओ ना पापा,
जल्दी से उठ जाओ ना पापा||

ऐसे कोई घर आता है क्या......
अपनों को कोई रुलाता है क्या.......
//कवयित्री
खिलौने वाले हाथों ने
जब मुख अग्नि थामा होगा||
एक जीवन छुटा होगा
वही एक बचपन रुठा होगा||
कच्ची उम्र में ही,
वास्तविकता से मिलान हुआ होगा||
जीवन के अध्याय में ,
शुरू एक नया अभियान हुआ होगा||
© Pakhi Vaibhav