...

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ख्वाहिशें और ज़िंदगी
कभी ये गिला कभी वो गिला यूं ही चल रहा है ये सिलसिला
कभी ख़त्म हों न शिकायतें हुआ रोज़ इक नया मसअला

कहीं भी नज़र को घुमाओ तो दिखाई दे है गुबार ही
इसी राह पर था चला कभी जहां लुट गया था वो काफ़िला

यूं ही सोचते रहे उम्र भर इसी बात का तो मलाल है
यूं तो ज़िंदगी ने दिया बहुत मगर हैसियत से है कम मिला

कभी ख़्वाहिशें न हुई ख़तम हुई ज़िंदगी तो तमाम यूं
मिले सांस जो थे उधार के वो फना हुए जैसे बुलबुला

ये सफ़र बड़ा ही तवील था यूं पड़े थे पांव में आबले
कोई ढूंढता फिरा दर बदर ज़रा कम हुआ न ये फासला

ज़रा सी खुशी की तलाश में कहां खो गया तेरा चैन यूं
यूं ही उम्र अपनी गुज़ार दी ज़रा कम हुआ न ये वलवला।

बहर: ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२
© अमरीश अग्रवाल "मासूम"