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P7 - लुप्त होती प्रजाती
रिमझिम रिमझिम बारिश जैसे, टिप टिप छत पे बरसती है।
छन छन पायल का शोर मचाती, वो देखो, दो सहेलियां कैसे टहलती है।।

देख लो इसको, की ये नज़ारा अब शायद फिर दिखे न दिखे।
डर की काली रात घनी है, अब शायद ये चाँद फिर न खिले।।

गली मोहल्लों में भी अब,
सिर्फ पतंग लूटने वाले दिखेंगे,
और दीवारों पे खिंची बस तीन खड़ी लकीरें दिखेंगी।

अब किसी कोने में ईट पत्थरों का कोई घर न होगा,
छोटे छोटे करचे, चम्मच और चूल्हा न होगा,
अब शायद ही किसी गुड्डे गुड़िया की बारात सजेगी,
अब शायद ही कोई आंगन में बैठ रंगोली बनाएगी।।

नन्ही सी उम्र में, ज़माने के बोझ कांधों पे लादे,
बच्चों का कोई झुंड दिख जाए कभी,
तो मासूमियत बिखेरती नन्ही परियों का दीदार कर लेना।

पास न जाना लेकिन उनके, वो डर जाएंगी,
मासूम सी हँसी उनकी अचानक ख़ौफ में बदल जाएंगी।।

दूर से ही बस इस नज़ारे को ज़हन में कैद कर लेना,
क्योंकि,
ये एक ऐसी प्रजाति है जो मर्दों के वहशीपन के चलते लुप्त होने की कगार पर है।।

- विशाल राजेन्द्र शिंदे
- ‎०५ जनवरी २०१३
- ‎पुणे